शिक्षक दिवस के संदर्भ में ; डॉ. राधाकृष्णन

        गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

    गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात् परब्रह्म है, उन सद्गुरुओं  को प्रणाम करता हूँ।

     भारतीय संस्कृति में माता-पिता से भी ऊंचा दर्जा गुरु को दिया जाता है। एक तरफ जहां माता-पिता बच्चे को जन्म देते हैं तो शिक्षक उनके जीवन को आकार देते हैं। शिक्षक हमें बिना किसी भेदभाव और निस्वार्थ भाव से हमारे जीवन को सकारात्मकता की ओर ले जाने में मदद करते हैं और हमें नकारात्मकता से दूर रखते हैं और समाज में हमें एक अच्छा नागरिक बनाते हैं।

      गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय ।

      बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय ॥

   इस प्रचलित दोहे में महाकवि कबीरदास जी कहते है कि जब आपके सामने गुरु और भगवान दोनों ही खड़े हो तो आप सर्वप्रथम किसे प्रणाम करेंगे? गुरु ही आपको गोविंद अर्थात भगवान तक पंहुचने का मार्ग प्रशस्त करते हैं अर्थात गुरु महान है और आपको अपने गुरु का ही वंदन सर्वप्रथम करना चाहिए. ऐसे गुरुओं के सम्मान में आज आप और हम सब शिक्षक दिवस मनाने के लिए उपस्थित हुए हैं ।

   सन्‌ 1962 में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन राष्ट्रपति बने थे। इस वर्ष उनके कुछ शिष्य और प्रशंसक मिलकर उनका जन्मदिन मनाने का सोचा। इसे लेकर जब वे उनसे अनुमति लेने पहुंचे तो राधाकृष्णन जी  ने कहा कि मेरा जन्मदिन अलग से मनाने की बजाय अगर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाएगा तो मुझे गर्व होगा। तब से प्रतिवर्ष 5 सितंबर को शिक्षक दिवसके रूप में मनाया जाने लगा है।  

    डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (1888 से 1975) का जन्म तमिलनाडु में स्थित तिरुतनी में एक मध्यवर्गीय तेलुगु परिवार में हुआ था। उनका प्रारंभिक समय तिरूतनी और तिरुपति में बीता।

    डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन अपनी बुद्धिमतापूर्ण व्याख्याओं, आनंददायी अभिव्यक्ति और हंसाने, गुदगुदाने वाली कहानियों से अपने छात्रों को मंत्रमुग्ध कर दिया करते थे। वे छात्रों को प्रेरित करते थे कि वे उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारें। वे जिस विषय को पढ़ाते थे, पढ़ाने के पहले स्वयं उसका अच्छा अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वे अपनी शैली की नवीनता से सरल और रोचक बना देते थे।

    शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. राधाकृष्णन ने जो अमूल्य योगदान दिया वह निश्चय ही अविस्मरणीय रहेगा। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। यद्यपि वे एक जाने-माने विद्वान, शिक्षक, वक्ता, प्रशासक, राजनयिक, देशभक्त और शिक्षा शास्त्री थे, तथापि अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में अनेक उच्च पदों पर काम करते हुए भी शिक्षा के क्षेत्र में निरंतर योगदान करते रहे। उनकी मान्यता थी कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाए तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है।

  डॉ. राधाकृष्णन कहा करते थे कि मात्र जानकारियां देना शिक्षा नहीं है। यद्यपि जानकारी का अपना महत्व है तथापि व्यक्ति के बौद्धिक झुकाव और उसकी लोकतांत्रिक भावना का भी बड़ा महत्व है।

  शिक्षा का लक्ष्य ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरंतर सीखते रहने की प्रवृत्ति है । वह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों प्रदान करती है। वे कहते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती।

   वे कहते थे कि विद्यालय जानकारी बेचने की दुकान नहीं हैं, वे ऐसे तीर्थस्थल हैं, जिनमें स्नान करने से व्यक्ति को बुद्धि, इच्छा और भावना का परिष्कार और आचरण का संस्कार होता है।

   अमेरिका में भारतीय दर्शन पर उनके द्वारा दिए गए व्याख्यान को सभी लोगों ने बहुत सराहा । उन्हीं से प्रभावित होकर सन् 1929-30 में उन्हें मेनचेस्टर कॉलेज में प्राचार्य का पद ग्रहण करने को बुलाया गया। मेनचेस्टर और विश्वविद्यालय में धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन पर दिए गए उनके भाषणों को सुनकर प्रसिद्ध दार्शनिक बर्टेंड रसेल ने कहा था, ‘मैंने अपने जीवन में पहले कभी इतने अच्छे भाषण नहीं सुने।

    आधुनिक भारत के महान दार्शनिक राधाकृष्णन जी के अनुसार दर्शनशास्त्र जीवन को समझने का एक नजरिया है। उन्होंने भारत की प्राचीन गौरवशाली दार्शनिक परंपराओं को पश्चिमी शैली में परिभाषित कर भारतीयों का आत्मसम्मान बढ़ाया। राधाकृष्णन जी ने वेदांत दर्शन और प्रस्थान त्रयी (उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता) को पश्चिम की शब्दावली में समझाया। उन्होंने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि भारत की आत्मा सदैव सनातन रही है और यह हर तरीके से रूढि़वाद और संकीर्णता का विरोध करती है।

    इस महान दार्शनिक शिक्षाविद का निधन 17 अप्रैल 1975 को हृदयाघात के कारण उनका निधन हो गया। यद्यपि उनका शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया तथापि उनके विचार वर्षों तक हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे।

अंत में पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी की इन पंक्तियों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ –

छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता

टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता

मन हारकर मैदान नहीं जीते जाते

न ही मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं।

आप और हम सब मन भी जीतें और मैदान भी…।

शुभकामनाओं सहित

अपने विचारों को यहीं पर विराम देता हूँ | जय हिन्द |

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